इतिहास

दिल्ली के तोमर राजवंश का इतिहास- लाल किला का इतिहास

चंदरबरदाई की रचना पृथ्वीराज रासो में अनंगपाल को दिल्ली का संस्थापक बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि उसने ही ‘‘लाल-कोट’’  (वर्तमान लाल किला) का निर्माण करवाया था। दिल्ली में तोमर वंश का शासनकाल 900-1200 ई. तक माना जाता है। ‘‘दिल्ली’’ या ‘‘दिल्लिका’’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम उदयपुर में प्राप्त शिलालेखों पर पाया गया, जिसका समय 1170 ई. निर्धारित किया गया। दिल्ली में तोमरों के शासन की सबसे मजबूत पुष्टि पेहवा से प्राप्त शिलालेख से होती है।

दिल्ली की संस्थापना और अनंगपाल तोमर 

यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि दिल्ली की संस्थापना दिल्ली के प्रथम शासक अनंगपाल प्रथम ने 736 ई. में की थी। कुछ इतिहासकार अन्य तिथि भी निर्धारित करते हैं, लेकिन अधिकांश इतिहासकार 736 ई. में दिल्ली ढिल्ली या दिल्लिका की स्थापना अनंगपाल के द्वारा किया जाने पर सहमत हैं। अबुल फजल ने दिल्ली तोमर राज्य की स्थापना का वर्ष बल्लभी संवत के अनुसार 416 दिया है जो ई. 736 होता है। जोगीदास बारहट प्रकाशित तंवर वंश का संक्षिप्त इतिहास के अनुसार भी 736 ई. ही मानी है। कनिंघम भी 736 ई. को ही मान्यता देता है और राजस्थानी शोध संस्थान चौपासिनी से प्राप्त दिल्ली के तोमरों की वंशावली भी 736 ई. ही को प्रमाणिक मानती है। 

ऐसा माना जाता है कि कुरुक्षेत्र इस समय तक किसी भी राज्य के अंतर्गत नहीं आता था। इसलिए उसे अनंग प्रदेश कहा जाता था। अनंगपाल प्रथम का असली नाम विल्हण देव (बीलनदेव) था। उसे राणा जाजू या ‘जाऊल’ भी कहा जाता था। इस अनंग प्रदेश पर अधिकार कर राज्य स्थापना के कारण ही उसका नाम अनंगपाल पड़ा।

अनंगपाल ने अनेक भवनों एवं महलों का निर्माण किया। जिसमंे लाल कोट प्रमुख है, जिसे शाहजहाँ ने लाल किला नाम दे दिया। महेंद्र सिंह खेतासर अपनी पुस्तक “तंवर (तोमर) राजवंश का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास’’ में लिखते हैं-“अनंगपाल के समय में दिल्ली में अनैक निर्माण कार्य करवाए गए होंगे, जिनके अवशेष आज दिल्ली में खोजना असंभव हैं। लेकिन कुछ आधारों पर उनकी कल्पना को साकार किया जा सकता है। पेहवा के शिलालेख से अनंगपाल के समय हुये निर्माण के बारे में संक्षिप्त जानकारी प्राप्त होती है।“

अनंगपाल तंवर के 20 पुत्र जिन्होंने अपने पिता की सहायता से अनेक नगरों को बसाया। अबुल फजल, सैयद अहमद और बीकानेर के कागजात व ग्वालियर के भाट की पोथी से ज्ञात होता है कि अनंगपाल प्रथम ने 736 ई. में दिल्ली की स्थापना कर तोमर राजवंश की नींव रखी तथा 754 ई. तक अनंगपाल का शासन रहा। 

महेंद्र सिंह खेतासर अपनी पुस्तक “तंवर (तोमर) राजवंश का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास’’ में लिखते हैं। “अनंगपाल प्रथम के पश्चात् दिल्ली के इतिहास को पाल, प्रतिहार और चौहानों के इतिहास के आधार पर लिखा जा सकता है, क्योंकि उस समय तक तोमरों ने अपनी अपनी स्वतंत्रता खो दी और इन समकालीन राजवंशो के साथ उनके संघर्ष का काल प्रारंभ होता है। जिसमंे वे कहीं उनके सामंत तो कहीं शक्तिशाली विरोधी के रूप में संघर्ष करते हुये दिखते हैं।“ 

अनंगपाल के वंशज तथा बाद की स्थिति

अनंगपाल के बाद कई तोमर शासक हुये। जिन्होंने दिल्ली पर शासन किया। इनमंे प्रमुख हैं राजा वासुदेव, गंग्देव, पृथ्वीमल, जयदेव, राजा नरपाल, उदयराज, आप्रछ्देव, कुमारपाल देव, अनंगपाल द्वितीय, तेजपाल प्रथम, महिपाल विजयपाल आदि। इन लोगों ने कई सौ वर्षों तक दिल्ली पर शासन किया। यधपि तोमरों ने दिल्ली पर लम्बे समय तक शासन किया लेकिन उनकी स्थिति कभी भी साफ नहीं रही। इतिहास में कभी उन्हें प्रतिहारों का, तो कभी पालों का, तो कभी गहड़वालों का, तो कभी चौहानों का सामंत माना गया। बीच बीच में शायद यदा कदा उनका स्वतंत्र शासन भी रहा है। लेकिन निश्चिन्त रूप से या तो तोमर वंश कभी भी राष्ट्रीय परिपेक्ष में बहुत शक्तिशाली नहीं रहा या कीन्हीं भी अज्ञात कारणों की वजह से इतिहास में अपना अस्तित्व साबित नहीं कर पाया। फलस्वरूप इतिहासकार बहुधा तोमर इतिहास को लेकर उदासीन ही बने रहे।  

प्रचलित इतिहास के अनुसार 736 ई. में अनंगपाल तोमर ने अनंग प्रदेश की नींव डाली और ढिल्ली या ढिल्लीका उसकी राजधानी थी। अनंगपाल तथा उसके बाद के कुछ वंशजों ने जरुर स्वतंत्र शासन किया, लेकिन जल्द ही पाल वंश (गौड़) एवं बाद में शक्तिशाली प्रतिहार वंश ने इन्हें जीत लिया और इन्हें अपना करद बना लिया।  

इतिहास के अनुसार 

महेंद्र सिंह खेतासर के अनुसार, “उत्तरी  भारत की बदलती परिस्थितियों में दिल्ली के तख्त पर पृथ्वीमल बैठे। इस समय तक पाल राजा  धर्मपाल अपनी स्थिति मजबूत कर चूका था। उसने लगभग 800 ई. के आस पास उत्तरी भारत के बहुत बड़े भू-भाग पर अपनी विजय पताका फहरायी थी। उसने भोज, मत्स्य, मद्र, कुरु, यदु, यवन, अवन्ती, गांधार और कीर नामक प्रदेशों को जीता।” (तंवर (तोमर) राजवंश का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास)

मुहणोत नैणसी की ख्यात के अनुसार, “बंगाल के राजा धर्मपाल ने दिल्ली के राजा पृथ्वीमलको पराजित किया तथा उसे अपना करद बना लिया।

“दिल्ली की स्थापना से लेकर गंगदेव (773-794) तक दिल्ली स्वतंत्र रह सकी और उसके पश्चात बंगाल के पालों का अधिपत्य हो गया।’’(दिवेदी, हरिहर निवास)

पृथ्वी मल के बाद जयदेव, राजा नरपाल एवं राजा उदयराज लगभग 40 सालों तक पालों के सामंत रहे। बाद में पाल वंश के द्वारा बोद्ध धर्म अपनाने के कारण मौर्य वंश की तरह पाल वंश का भी युद्ध से विरक्ति एवं अहिंसा की बातें करने के कारण पतन हो गया और तोमर फिर से स्वतंत्र शासक बन गये।

राजा आप्रच्छ्देव दिल्ली के स्वतंत्र राजा के रूप में अपनी पहचान रखते हैं। लेकिन इनके बाद के तोमर शासकों को इतिहासकार प्रतिहारों का सामंत मानते हैं। हरिहर द्विवेदी तथा खेतासर ने प्रयास किया है इन बातों को काटने का। लेकिन जो प्रमाण मिले हैं वो इसी तरफ संकेत देते हैं। वो चाहे 882 का पेहवा से प्राप्त शिलालेख हो या पृथुदक से प्राप्त गोग्ग तोमर का शिलालेख जो प्रतिहार महेंद्र का उल्लेख करता है।

इतिहास की धारा के विपरीत 

तोमर इतिहास पर सबसे अधिक शोधपूर्ण कार्य यदि किसी ने किया है तो वो हैं पंडित हरिहर द्विवेदी। उन्होंने ये साबित करने का प्रयास किया है कि ना केवल दिल्ली के तोमर स्वतंत्र शासक थे वरन मोहम्मद गौरी का युद्ध दिल्ली के शासक चाहड़पाल तोमर से हुआ था। जिसने पृथ्वीराज को निमंत्रण देकर युद्ध में बुलाया और अपने दल का नेता चुना। द्विवेदी विग्रह राज के द्वारा दिल्ली हस्तगत करने को भी नकारते हैं। 

इतिहासकारों का मत

गोविन्द प्रसाद उपाध्याय भी लिखते हैं “विग्रहराज चतुर्थ (लगभग 1153-63) असाधारण क्षमता का कुशल शासक था। उसने गुजरात के कुमारपाल को हराकर अपने पिता बदला लिया। इस शक्तिशाली शासक ने दिल्ली पर पुनः अधिकार करके हांसी को भी जीत लिया। तुर्कों के विरुद्ध भी उसने अनेक युद्ध किये और उन्हें आगे बढ़ने से रोकने में समर्थ रहा। उसके साम्राज्य में पंजाब, राजपुताना तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश (आधुनिक) के अधिकांश भाग शामिल थे। उसने अपनी योग्यता एवं कार्यकुशलता से चौहानों को उत्तरी भारत की महत्वपूर्ण शक्तियों में स्थापित कर दिया था ।  

पंडित विश्वेश्वरनाथ अपनी पुस्तक “भारत के  प्राचीन राजवंश” (पृष्ठ सं. 146-47) में विग्रहराज (विसलदेव) चतुर्थ के बारे में  लिखते हैं। “यह  अर्नोंराज का पुत्र और जगदेव का छोटा भाई था तथा अपने बड़े भाई के जीते जी उससे राज्य छीनकर गद्दी पर बैठा। यह बड़ा प्रतापी, वीर और विद्वान राजा था। बिजोलिया के लेख से ज्ञात होता है कि इसने नाडोल और पाली को नष्ट किया तथा जालोर और दिल्ली पर विजय प्राप्त की।   

देहली की प्रसिद्द फिरोजशाह की लाट पर वि.सं. 1220 (1163 ई.) वैशाखशुक्ल 15 का इसका लेख खुदा है। उसमंे लिखा है कि- “इसने तीर्थयात्रा के प्रसंग से विंध्यांचल से हिमालय तक के देशों को विजयकर उनसे कर वसूल किया और आर्यावर्त से मुसलमानों को भागकर एक बार  फिर भारत को आर्यभूमि बना दिया। इसने मुसलमानों को तकपर निकाल देने की अपने उत्तराधिकारियों को वसीयत की थी।” यह लेख पूर्वोक्त फिरोजशाह की लाट पर अशोक की धर्मआज्ञा के नीचे खुदा हुआ है।“

मुँहनोत नेणसी री ख्यात के अनुसार भी विग्रहराज चतुर्थ ने दिल्ली को जीता था। “विसलदेव चौथा, चौहानों में यह बड़ा प्रतापी पर विद्वान हुआ। सं. 1208 वि. में तंवरों की दिल्ली का राज लिया और मुसलमानों से कई लडाइयां लड़ कर उन्हें देश से निकाल दिया। दिल्ली की लाट पर इसका एक लेख सं. 1220 वि. वैशाख सुदी 15 का है।“

दशरथ शर्मा के अनुसार “जिस संघर्ष का प्रारंभ चंदंराज के समय हुआ था, उसकी समाप्ति विग्रहराज के समय हुयी। उसने हांसी और दिल्ली को अपने साम्राज्य में किया किन्तु सामान्यतः राजकार्य तंवरों के हाथ में ही रहने दिया।

रायबहादुर महामहोपाध्याय डॉ. गोरीशंकर हीराचंद ओझा ने विग्रहराज चतुर्थ द्वारा दिल्ली जीतने का संवत भी 1208 (सन 1151 ई.) निर्धारत किया है। कुल मिलाकर सभी प्रमुख इतिहासकार इस बात पर एक मत हैं कि चौहान तंवर संघर्ष काफी पुराना था, जिसे अंततः चौहान विग्रहराज चतुर्थ ने तंवरों को हराकर समाप्त किया। 

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