इतिहास

बावनी इमली के शहीद ठाकुर जोधा सिंह अटैया, ठाकुर दरियाव सिंह और उनके 51 साथी

उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले में बिंदकी से खजुहा जाने पर मुगल रोड पारादान गांव की जमीन पर स्थित ये वही इमली का पेड़ है जिस पर एक साथ गौतम क्षत्रिय ठाकुर जोधा सिंह और उनके 51 स्वतंत्रता संग्राम सेनानी साथियों को अंग्रेजी हुकूमत द्वारा फांसी दे दी गई थी।। यह बावनी इमली के नाम से मशहूर पेड़ आज भी गवाह के तौर पर मौजूद है। भारत के इतिहास में इसे दूसरा जलियां वाला बाग भी कहा जाता है क्योंकि एक साथ इतने बड़े पैमाने पर क्रांतिकारियों को अंग्रेजों द्वारा मौत के घाट उतारे जाने का अपने आप में यह दूसरा मामला था और एक साथ इतने क्रांतिकारियों को फांसी देने का ये पहला मामला था। बावनी इमली अब शहीद स्मारक बन गया है और यहां पहुंचने के लिए हवाई मार्ग से आप कानपुर आकर फिर वहां से सड़क मार्ग से जा सकते हैं। इसके अलावा कानपुर इलाहाबाद रेल मार्ग और स्थित फतेहपुर रेलवे स्टेशन से भी यहां पहुंचा जा सकता है। जो कुंठित लोग यह कहते हैं कि ठाकुरों ने केवल ऐशो आराम की है कोई लड़ाइयां नहीं लड़ी हैं, उन लोगों को शायद ठाकुरों के ऐसी शहादतों का पता नहीं है और अगर पता है फिर भी कुंठा है तो उसका कोई इलाज नहीं है फिर। बाकियों से हमें ज्यादा उम्मीदें रखनी भी नहीं हैं, हमारी कोशिश होनी चाहिए कि ठाकुरों का बच्चा बच्चा अपने पुरखों के गौरवशाली इतिहास से परिचित हो

गौतम ठाकुर जोधा सिंह अटैया कौन थे और बावनी इमली कांड क्या है?

उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले से 50 किमी दूर स्थित खजुआ ब्लॉक बिंदकी उपखंड के अटैया रसूलपुर गांव (अब पधारा) के रहने वाले गौतम क्षत्रिय जोधा सिंह अटैया का जन्म, ठाकुर भवानी सिंह के घर हुआ था, इनके पिता यानि भवानी सिंह उस समय के एक प्रमुख जमींदार थे। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम यानि 10 मई, 1857 को जब बैरकपुर छावनी में आजादी का शंखनाद किया गया और उसकी ज्वाला देशभर में फैलने लगी तो उत्तर प्रदेश का फतेहपुर भी उससे अछूता नहीं रहा

महज 20 साल की उम्र से ही जोधा सिंह ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था। जोधा और उनके दो सहयोगी ठाकुर दरियाव सिंह और ठाकुर शिवदयाल सिंह ने साथ मिलकर अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ गोरिल्ला युद्ध की शुरुआत की थी और अंग्रेज़ो की नाक में दम करके रख दिया। 10 जून, 1857 को जोधा के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने फतेहपुर कचहरी एवं कोषागार को अपने कब्जे में ले लिया। इस काम में फतेहपुर के डिप्टी कलेक्टर हिकमत उल्ला खाँ भी इनके सहयोगी थे हालांकि बाद में हिम्मत उल्ला खान को अग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया था और और उनको भी क्रूरतापूर्ण तरीके से मार दिया था।

जोधा को सरकारी कार्यालय लूटने एवं जलाए जाने के कारण अंग्रेजों ने डकैत घोषित कर दिया था। आगे चलकर वो अवध व बुंदेलखंड के क्रांतिकारियों के संपर्क आए, उसके बाद जोधा सिंह ने एक बार महमूदपुर गांव में एक अंग्रेज दारोगा व सिपाही को मार डाला था। इसी तरह 7 दिसंबर 1857 को रानीपुर गांव में बनी पुलिस चौकी में हमला कर अंग्रेजों के घोड़े खोलकर अपने साथ ले गए। कहा जाता है एक बार इनको पता लगा कि इनके ही समकालीन और पास के ही एक और क्रांतिकारी दरियांव सिंह को अंग्रेजों ने खजुहा में गिरफ्तार कर लिया। ये खबर मिलते ही ये अपने साथियों के साथ खजुहा की ओर चल दिए और पहले से घात लगाए बैठे कर्नल क्रस्टाइल की घुड़सवार सेना ने सभी को बंदी बना लिया था हालांकि कुछ अन्य लोगों का ये भी कहना है कि जोधा सिंह अपने साथियों के साथ अरगल के राजा से मुलाकात करके वापस लौट रहे थे तब किसी की मुखबिरी के कारण बंदी बनाने के बाद 28 अप्रैल, 1858 को पास के ही पारादान गांव की जमीन पर स्थित इमली के पेड़ पर उन्हें अपने 51 साथियों समेत फाँसी दे दी गयी।

अंग्रेजों ने सभी जगह मुनादी (ढोल लेकर अनाउंसमेंट) करा दी कि जो कोई भी इनके शव को पेड़ से उतारेगा उसे भी फांसी पर लटका दिया जाएगा। उस वक्त अंग्रेजों का इतना खौफ था कि किसी ने इन शहीदों के पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार नहीं किया और इस कारण कुछ दिनों तक उन सभी के शव पेड़ों से लटकते रहे और चील गिद्ध खाते रहे। बाद में करीब 4 जून 1858 को रात में भवानी सिंह ने सभी के क्षत विक्षित शव रूपी अस्थिपंजर उतरवाए और नजदीकी शिवराजपुर गंगा घाट में सभी का अंतिम संस्कार किया। आज भी यहां भारत मां के इन अमर सपूतों को याद किया जाता है तब से बावनी इमली का यह पेड़, एक तीर्थ स्थान बन गया है

इस घटना कांड को ही इतिहास में बावनी इमली नरसंघार या कांड कहा जाता है। जोधा सिंह अटैया के अन्य प्रमुख साथियों में ठाकुर दरियाव सिंह, शिवदयाल सिंह, महराज सिंह इत्यादि थे

ऐसे महान पूर्वजों के चरणों में हम सादर नमन अर्पित करते हैं

जोधा सिंह के क्रांतिकारी जीवन से जुड़ी एक और दिलचस्प बात ये है कि उनके क्षेत्र के मुस्लिमों ने भी उनके इस सफर में पूरा साथ दिया था। ऐसे क्रांतिकारियों के किस्से अक्सर इतिहास के पन्नों से गायब कर दिए जाते हैं

आज बावनी इमली में स्मारक तो बना दिया गया है लेकिन क्षत्रिय समाज को उसकी व्यक्तिगत जिम्मेदारी लेनी चाहिए, वहां बेहतर सुविधाएं डेवलप करें, उन सभी क्रांतिकारियों के नाम पता करें जो जोधा सिंह के साथ शहीद हुए थे। जोधा सिंह के वंशजों के परिवार की भी समुचित मदद की जाए, कुछ नही कर सकते तो कम से कम, अपने क्षत्रिय समाज के लोगों में ज्यादा से ज्यादा जानकारी साझा करें ताकि जयंतियो के समय ही सही, पर कम से कम उनका नाम तो लिया जाए। क्योंकि इधर क्षत्रिय समाज ने नाम लेना कम किया या बंद किया, उधर इतिहास चोर उन पर अपना दावा ठोकने लग जायेंगे, इसके बाद आप लड़ते रहिए उनसे, करते रहिए अंतहीन जिरह, और बर्बाद करते रहिए अपना समय !!

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Source
modernkshatriya.org
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